
बुधवार के प्रातः कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने बताया कि अस्थिर और चंचल मन का नियमन करने में सावधानियां अवलंबन करना जरूरी है।
श्रीमद्भगवद्गीता का छठा अध्याय का 26 वां श्लोक उद्धृत करते हुए स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने बताया –
यतो यतो निश्चरति मनश्चंलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।
अर्थात अस्थिर और चंचल मन जहां-जहां विचरण करता है वहां-वहां से हटाकर उसको एक परमात्मा में ही भली-भांति लगाना चाहिए। जब हम मन को कोई ध्येय वस्तु में लगाना चाहते हैं तब वो मन वहां ठहरता नहीं अतः इसको अस्थिर कहा गया है। उपरंतु यह मन तरह-तरह के सांसारिक भोग के पदार्थ का चिंतन करता है अतः इसको चंचल कहा गया है। तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मा में स्थिर होता है और न संसार को ही छोड़ता है इसलिए साधकों को चाहिए कि यह मन जहां-जहां जाए और जब-जब जाए इसको उस कारण से हटाकर ध्येय वस्तु पर लगाएं।
स्वामी जी ने बताया कि मन का परमात्मा से हटने का कारण है कि विषय में मन को अधिक आनंद मिलता है। अगर हम विचार करें कि विषय का आनंद स्थायी नहीं है एवं सीमित है यद्यपि परमात्मा का आनंद सीमाहीन है, निरंतर है और चिरंतन है अर्थात सदैव के लिए है तब मन ईश्वर के आनंद में अनुरक्त हो जाएगा एवं विषय से विरक्त हो जाएगा।
द्वितीयत: जहां-जहां मन जाए वहां वहां अगर हम परमात्मा को ही देखें कारण परमात्मा सर्वत्र विराजमान है तब मन बराबर परमात्मा में ही युक्त रहेंगे। तृतीयत: साधक जब परमात्मा में मन लगाने का अभ्यास करता है तब संसार की बातें याद आती है इससे साधक घबरा जाता है लेकिन यह मन की स्वाभाविक अवस्था है इसमें घबराना नहीं चाहिए। मन के भीतर जितना कूड़ा-कचरा है वो परमात्मा का चिंतन करते समय बाहर निकल आता है जिससे हमारा मन धीरे-धीरे निर्मल हो जाता है। यह मन की ईश्वर की ओर जाने की एक प्रक्रिया है।
साधक को ईश्वर का चिंतन करने में कठिनता इसलिए पड़ती है क्योंकि वो अपने को संसार को अपना मानकर भगवान का चिंतन करता है। अगर वो अपने को भगवान का मानकर चिंतन करें तब संसार उसको विदेश जैसा प्रतीत होगा एवं संसार से दूरी स्वत: बन जाएगी। अतएव ध्यान करते समय साधक को यह ख्याल रखना चाहिए कि मन में कोई विभ्रान्ति न रहे इससे मन शांत और स्थिर हो जाएगा।
स्वामी मुक्तिनाथानंद ने बताया इस प्रकार से अगर हम मन को ईश्वर अभिमुखी करने का प्रयास करें तब धीरे-धीरे मन शांत हो जाएगा एवं मन अपने वश में आ जाएगा और इस जीवन में ही हम ईश्वर का प्रकृत आनंद अनुभव करते हुए जीवन सार्थक और सफल कर लेंगे।